“सद्विचारों” की महत्ता का अनुभव तो हम करते हैं, पर उन पर दृढ़ नहीं रह पाते। जब कोई अच्छी पुस्तक पढ़ते या सत्संग-प्रवचन सुनते हैं, तो इच्छा होती है कि इसी अच्छे मार्ग पर चलें, पर जैसे ही वह प्रसंग पलटा कि दूसरे प्रकार के पूर्व अभ्यासी विचार पुनः मस्तिष्क पर अधिकार जमा लेते हैं और वही पुराना घिसापिटा कार्यक्रम चलने लगता है। इस प्रकार उत्कृष्ट जीवन बनाने की आकांक्षा एक कल्पना मात्र बनी रहती है। उसके चरितार्थ होने का अवसर प्रायः आने ही नहीं पाता।
उच्च विचारों को बहुत थोड़ी देर हमारी मनोभूमि में स्थान मिलता है। जितनी देर सत्संग-स्वाध्याय का अवसर मिलता है, उतने थोड़े समय ही तो अच्छे विचार मस्तिष्क में ठहर पाते हैं। इसके बाद वही पुराने कुविचार आँधी-तूफान की तरह आकर उन श्रेष्ठ विचारों की छोटी-सी बदली को उड़ाकर एक ओर भगा देते हैं। निकृष्ट विचारों में तात्कालिक लाभ और आकर्षण स्वभावतः अधिक होता है, चिरकाल से अभ्यास में आते रहने के कारण उनकी जड़ें भी बहुत गहरी हो जाती हैं। इन्हें उखाड़ कर नए श्रेष्ठ विचारों की स्थापना करना, सचमुच बड़ा कठिन काम है।
दस-पाँच मिनट कुछ पढ़ने-सुनने या सोचने-चाहने से ही परिष्कृत मनोभूमि का बन जाना और उसके द्वारा सत्कर्मों का प्रवाह बहने लगना कठिन है। जैसे विचारों को जितनी तीव्रता और निष्ठा के साथ जितनी अधिक देर मस्तिष्क में निवास करने का अवसर मिलता है, वैसे ही प्रभाव की मनोभूमि में प्रबलता होती चलती है। देर तक स्वार्थपूर्ण विचार मन में रहें और थोड़ी देर सद्विचारों के लिए अवसर मिले तो वह अधिक देर रहने वाला प्रभाव कम समय वाले प्रभाव को परास्त कर देगा। इसलिए उत्कृष्ट जीवन की वास्तविक आकांक्षा करने वाले के लिए एक ही मार्ग रह जाता है कि मन में अधिक समय तक अधिक प्रौढ़, अधिक प्रेरणाप्रद एवं उत्कृष्ट कोटि के विचारों को स्थान मिले।
जिसका बहुमत होता है, उसकी जीत होती है। बहती गंगा में यदि थोड़ा मैला पानी पड़ जाए तो उसकी गंदगी प्रभावशाली न होगी, पर यदि गंदे नाले में थोड़ा गंगाजल डाला जाए तो उसे पवित्र न बनाया जा सकेगा। इसी प्रकार यदि मन में अधिक समय तक बुरे विचार भरे रहेंगे तो थोड़ी देर, थोड़े से अच्छे विचारों को स्थान देने से भी कितना काम चलेगा ? उचित यही है कि हमारा अधिकांश समय इस प्रकार बीते जिससे उच्च भावनाएँ ही मनोभूमि में विचरण करती रहें। “राधे-राधे “
हम अक्सर जीवन को श्रेष्ठ बनाने की प्रेरणा लेते हैं – कभी किसी सत्संग में, किसी प्रेरणादायक पुस्तक में, या किसी महापुरुष के प्रवचन से। उन क्षणों में हमारे भीतर से आवाज़ आती है — “अब जीवन को श्रेष्ठ बनाना है”, लेकिन जैसे ही हम उस प्रसंग से हटते हैं, वैसी ही पुरानी आदतें, वही पूर्व संस्कार, फिर से हमारी सोच पर हावी हो जाते हैं। सद्विचारों की वह झलक कुछ समय में ही धूमिल हो जाती है।
यह द्वंद्व केवल एक व्यक्ति का नहीं, अपितु हर उस इंसान का है जो अपने जीवन में ऊँचाई पाना चाहता है।
मन की धरती पर जो विचार लंबे समय तक रहते हैं, वही प्रभावी बनते हैं। अगर अधिकांश समय स्वार्थ, ईर्ष्या, मोह या नकारात्मकता के विचारों में बीतेगा, तो थोड़े समय का सत्संग या अध्ययन उतना फलदायी नहीं हो पाएगा।
जैसे:
गंगा में यदि थोड़ा मैला पानी डाल दें, तो गंगा फिर भी पवित्र रहती है। लेकिन गंदे नाले में कुछ बूँद गंगाजल डालने से वह नाला शुद्ध नहीं हो सकता।
यह उदाहरण हमें यह स्पष्ट करता है कि मूल्यवान विचारों को मन में स्थायी रूप से बसाने के लिए निरंतर अभ्यास की आवश्यकता है। दस मिनट का सत्संग सौ घंटे के कुविचारों को हटाने में असमर्थ रहेगा, यदि हम अपने वातावरण, संगत, और सोच को नहीं बदलते।
क्या है समाधान? नियमित सत्संग और स्वाध्याय – दिन में निश्चित समय पर श्रेष्ठ विचारों का श्रवण-पाठन।
संगति का चयन – जैसे विचार, वैसी संगति। श्रेष्ठ लोगों के साथ रहना श्रेष्ठ सोच को पुष्ट करता है।
ध्यान और आत्मचिंतन – मन को बार-बार सजग करना कि वह किस दिशा में जा रहा है।
निष्कर्ष: सद्विचारों का प्रभाव तभी स्थायी हो सकता है जब हम उन्हें मात्र सुनें नहीं, वरन मन, वाणी और कर्म से अपनाएँ। जितना अधिक समय हम उन्हें अपने भीतर टिकाएंगे, उतनी ही वे हमारे व्यक्तित्व को ढालेंगे।
Leave a Reply